कल, आज और कल (Kal Aaj Aur Kal)

कितनी ही कोशिश की लेकिन मैं उससे न बच पाया था हर वक्त आखों में झिलमिलाता जो, मेरा ही तो साया था जो कल तक मेरा अपना था उसने ही आज डराया था रह-रह कर मुझसे पूछ रहा क्यों वक्त तूने गवाया था । " क्यों नहीं किया वो सब जिसको ये दुनिया करती आई है क्यों तेरे मन में उसके लिए नफरत सी अब तक छाई है हाँ ! मानता हूँ उसको करके कुछ पीढ़ीयाँ तो पछताई है पर अनुभव मेरा कहता है, दुनिया की यही सच्चाई है । " ये बीता हुआ कल, सिर पर चढ़, आज हिसाब मांग रहा जंजीर बना 'अफ़सोस' की, क्यों मुझे सूली पर टाँग रहा संदेह, ग्लानि और कुंठा के, क्यों आज रचा ये स्वांग रहा बीते कल का हारा तू, क्यों पूछ सवाल उटपटांग रहा । हाँ शायद ! मैंने ही अपना कर्त्तव्य ठीक से किया नहीं, जैसे जीवन को जीना था कल वैसे मैने जिया नहीं, जो सीख गलतियों ने दी थी उनको भी शायद लिया नहीं अपने आज मैं उलझा यूँ, कल का विश्लेषण किया नहीं । पर इसका अर्थ ये कतई नहीं, तू नींद- चैन खा जाएगा हर बार भिड़ाकर भाव, मेरे तर्कों को काटता जाएगा बिना मर्जी मेरे जीवन का चालक भी बन जाएगा अपराध बोध की खाई में तू, मुझे भी खींच ले जाएगा । पर गाँठ बांध...