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जून, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यादों का एक सहारा (Yadon Ka Ek Sahara)

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  दूर कहीं आसमान में देखा, तारा एक टिमटिमा रहा था मैं आज यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था । वो खेत जिसकी मेढ़ों पर चलकर अकसर फिसलते थे, वो धूमिल गलियाँ जिनपर हम अनायास ही टहलते थे, वो शाम की सौंधी सुगंध जब मवेशी टोलियों में निकलते थे, 'टापर' की मधुर ध्वनियां सुन नन्हें बछड़ों संग हम भी उछलते थे । भले तन पसीने से चूर,  पर था मन आनंद से भरपूर, ऊँची थी उसकी कदकाठी,  चलता हाथों में लिए लाठी,  धोती पहना था मटमैली,  टाँगा गमछे की बना थैली, और पशुओं को हांकता मदमस्त चला आ रहा था, मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 1 ॥ संतरा वाली गोली को खाते चटकारे ले लेकर, वो भी इतनी अनमोल कि मिलती आठ आने की मुट्ठी भर, सूर्योदय होते ही सखियों संग जाती वो नदी लिए गागर, लालिमा भोर की पाती थीं, बूंदें गागर से छलक छलककर, सिर में गागर वो दोहराए,  आँचल मस्ती में लहराए, पैरों में उसके लिपटी धूल,  मगर होठों से झड़ते फूल, घूंघट में कभी शर्माए वो,  कभी मन्द - मन्द मुस्काए वो,  सूरज भी इस मोहिनी रूप पर किरणें तब बिखरा रहा था,  मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 2 ॥ काकी के उन बागा

सपने और मंज़िल (Sapne Aur Manzil)

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    तुम  हो बहुत ही खास ये विश्वास करलो मेरा , क्या सूरज को भला कभी रोक पाया है अंधेरा ! कितनी ही बाधाएं, रोकती आयी हैं, रोकेंगी, रूढ़ीवादी समाज की हर नजरें तुम्हें टोकेंगी, पर तुम याद रखना, बढ़ते रहना तुम्हारा लक्ष्य है, गर खुद पर विश्वास हो, मंजिल तुम्हारे समक्ष है , याद करो वो वादा, जो तुमने खुद से किया था, वो खुली आँखों का सपना, जिसने जीवन का मकसद दिया था,  वो सपना जो आज भी देता है उम्मीद तुम्हें जीने की, जिसकी याद से बढ़ जाती है धड़कन तुम्हारे सीने की, वो सपना जिसे हम छुपाते हैं, बताने में कतराते हैं, हँसी उड़ेगी? हाँ ! शायद इसी बात से घबराते हैं, क्योंकि लोगों ने कहा- बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं, अरे पगले ! वो सिर्फ अपनी नाकामयाबी पर पछताते हैं, क्या फर्क पड़ेगा उनको जो खुद से ही हारते आए हैं , वो क्या बता पाएंगे, कितनी तुम में क्षमताएं हैं, फिर क्यों तुम थक गए, रुक गए, अभी तो ये सब शुरु हुआ है, ये पहला पड़ाव था संघर्ष का, जिसको तुमने छुआ है कब तक डरोगे गलतियों से, सीखना उनसे ही है, ज़िद करो, करते रहो, जीतना खुद से ही है जब जीत जाओगे खुद को, ज़िंदगी नए आयाम खोलेगी, तब तुम क्या बत

पेड़ एक परिणाम अनेक (Pedh Ek Parinam Anek)

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करते हुए नम्र निवेदन, लिख रहा हूँ मैं ये लेख  आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक !  मन विचलित हो रहा आज, है चहुँ ओर कुहराम मचा ।  वृष्टि की भी अनियमितता, है तापवृद्धि का क्या कहना । हरियाली दिखती नहीं कहीं, है छाया अंधाधुन्ध धुँआ ।  कर्णों तक न पहुँच सकी, वसुधा की यह करुण वेदना । कोलाहल में सोच न पाऊँ,  जाऊँ तो मैं कहाँ जाऊँ ।  विवशता की घेर में था,  कहूँ किससे अपनी ये व्यथा । अवचेतन में 'गूँज' उठी, विचरण - चिंतन करके देख ! आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ॥ 1 ॥ शोरगुल से तन - मन आहत, जा पहुँचा हूँ निकट 'बाग' में । स्वच्छन्द सी, डाल में बैठी, गा रही कोकिल मधुर राग में । नृत्य तथा गुंजार करते, लिपटे भँवरे हैं 'पुष्प पराग' में । आबोहवा है झूम रही, ना जाने किसके अनुराग में ! मन में प्रश्नों की है भरमार,  हो रहा कैसा ये चमत्कार ।  शीतल सी हवा, थे पुष्प झड़े,  गुलमोहर में अंगारे जड़े । पत्रों की ओट में छुप कर के, दिनकर कर रहा था 'अभिषेक' आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ॥ 2 ॥ कलरव का उल्लास लिए, विश्राम कर रहे राहगीर ।  मनमोहक खुशबू मन बहका

जिंदगी की एक किताब (Zindagi Ki Ek Kitab)

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क्यों न हम तुम मिलकर लिखें, जिंदगी की एक किताब, कुछ बातें सच्ची होंगी, कुछ होंगे महज़ ख़्वाब, सारी अड़चन साथ लिखें तो, कितने पन्ने लग जाएंगे ? क्या ख्वाहिश लिखने को उसमें, खाली पन्ने बच पाएंगे ? 'अड़चन को अवसर' लिख दें तो शायद बन जाए हिसाब ! कुछ बातें … हम भी तो अर्जुन-सम गुजरे, अंतर्द्वन्द्व से कितनी बार, फिर  'वासुदेव'  को क्यों न लिखें, समझाए जो गीता का सार, जब ढूंढा जिस रूप में खोजा, मिला मुझे वो लिए जवाब । कुछ बातें … कैसे शब्द बनेंगे वो पल, जब अवसाद बहुत हावी था ? नींद नहीं, न भूख, न बातें, खुद को समझे अपराधी था, उस झ्क उम्मीद को लिखो मगर, ढाए जिसने गम के सैलाब । कुछ बातें … विफल हुए उम्मीद भी टूटी, रिस्ते कई बेस्वाद हुए,  पर लिखना उन ठोकरों को, जिनके बल से फौलाद हुए, ज़िक्र उसका भी करना जिसने, तुमसे तुम्हें किया बेनकाब ! कुछ बातें … इक पन्ना उनको भी देना, जो टिफिन छीन कर खाते थे, "मैं हूँ ना यार" कह कर वो, निष्फिक्र तुम्हें कर जाते थे, उन यारों कि याद से भरा हुआ है, खुशियों का गुल्लक नायाब ! कुछ बातें … किस्मत में होगा, मिल जायेगा, यही तो सुनते आये हैं,

रेत की घड़ी (Ret Ki Ghadi)

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रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना ।  सिमट कर बिखरना, बिखर कर सिमटना । मुड़कर जो देखा बीते हुए कल में, खो गए उसी पल में जैसे मछली जल में ।  जैसे जल बादल में जैसे चांदनी थल में,  कहीं खो न जाएँ खुशियाँ वक्त की हलचल में । कुछ हमने सुना था, कुछ खुद से बुना था,  उनींदी सी आँखों में था एक सपना ।  रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 1 || थोड़ा सा पीछे गए तो पहुंचे बचपन में,  कभी कंचे कभी पिट्टुक खेलते थे आँगन में ।  कल्पनाओं के रास्ते टहल आते थे गगन में,  और करते बातें सितारों से मन ही मन में । मिलकर उस चाँद से, पूछनी थी बात ये,  कौन सी अदा है यूँ छिप-छिपकर दिखना ।  रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 2 || यादों की राहों में ऐसे ही भटकते हैं,  सच तो ये है कि उस पल को खोजते हैं ।  जब कहते थे हार कर गलतियों से सीखते हैं।  मानलो तो हार ठानलो तो जीतते हैं। जी रहे हर पल को, छू रहे बादल को,  और पूरा हो रहा है बचपन का वो सपना ।  रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना ||  रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 3 ||  -आकाश