पेड़ एक परिणाम अनेक (Pedh Ek Parinam Anek)



करते हुए नम्र निवेदन, लिख रहा हूँ मैं ये लेख 

आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ! 


मन विचलित हो रहा आज, है चहुँ ओर कुहराम मचा । 

वृष्टि की भी अनियमितता, है तापवृद्धि का क्या कहना ।

हरियाली दिखती नहीं कहीं, है छाया अंधाधुन्ध धुँआ । 

कर्णों तक न पहुँच सकी, वसुधा की यह करुण वेदना ।


कोलाहल में सोच न पाऊँ, 

जाऊँ तो मैं कहाँ जाऊँ । 

विवशता की घेर में था, 

कहूँ किससे अपनी ये व्यथा ।

अवचेतन में 'गूँज' उठी, विचरण - चिंतन करके देख !

आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ॥ 1 ॥


शोरगुल से तन - मन आहत, जा पहुँचा हूँ निकट 'बाग' में ।

स्वच्छन्द सी, डाल में बैठी, गा रही कोकिल मधुर राग में ।

नृत्य तथा गुंजार करते, लिपटे भँवरे हैं 'पुष्प पराग' में ।

आबोहवा है झूम रही, ना जाने किसके अनुराग में !


मन में प्रश्नों की है भरमार, 

हो रहा कैसा ये चमत्कार । 

शीतल सी हवा, थे पुष्प झड़े, 

गुलमोहर में अंगारे जड़े ।

पत्रों की ओट में छुप कर के, दिनकर कर रहा था 'अभिषेक'

आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ॥ 2 ॥


कलरव का उल्लास लिए, विश्राम कर रहे राहगीर । 

मनमोहक खुशबू मन बहकाए, मन्द मन्द बह रही समीर

आम्र, नीम, पीपल, पलाश, लगे जैंसे बिखरा हो 'अबीर' ।

रिम-झिम रिम-झिम बूंद गिरीं, कलियाँ खिलने को हैं अधीर ।


सावन का आनन्द है छाया, 

'नव पल्लव' वृक्षों ने पाया ।

था 'प्राणवायु' में भी आनन्द, 

जैसे 'आदिकवि' का प्रथम छन्द ।

अहा  ! प्रफुल्लित नेत्र हुए, प्रकृति के इतने रूप देख 

आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ॥ 3 ॥


कुछ क्षण पहले मन विचलित था, लग रहा था सब व्यर्थ है।

प्रकृति का दोहन करने में, मानव का ही स्वार्थ है ।

खुदगर्जी नहीं परोपकार ही तो, इस जीवन का अर्थ है ।

धन्य! हे तरु! 

धरा और मन दोनों को, इस अभिशाप से मुक्त करने का तुझमें समर्थ है ।


नव ऊर्जा से घर आया हूँ, 

आ कर के पेड़ लगाया हूँ ।

करता हूँ तुमसे भी आह्वान, 

'वृक्षारोपण' से करें पुनर्निमाण ।

धर्म नहीं वृक्षारोपण सम चलो करें यह 'कर्म नेक' 

आओ ! पेड़ लगाएँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक । 

आओ ! पेड़ लगाएँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ॥ 4 ॥


 -आकाश

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