यादों का एक सहारा (Yadon Ka Ek Sahara)

 





दूर कहीं आसमान में देखा, तारा एक टिमटिमा रहा था

मैं आज यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ।


वो खेत जिसकी मेढ़ों पर चलकर अकसर फिसलते थे,

वो धूमिल गलियाँ जिनपर हम अनायास ही टहलते थे,

वो शाम की सौंधी सुगंध जब मवेशी टोलियों में निकलते थे,

'टापर' की मधुर ध्वनियां सुन नन्हें बछड़ों संग हम भी उछलते थे ।


भले तन पसीने से चूर, 

पर था मन आनंद से भरपूर,

ऊँची थी उसकी कदकाठी, 

चलता हाथों में लिए लाठी, 

धोती पहना था मटमैली, 

टाँगा गमछे की बना थैली,

और पशुओं को हांकता मदमस्त चला आ रहा था,

मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 1 ॥


संतरा वाली गोली को खाते चटकारे ले लेकर,

वो भी इतनी अनमोल कि मिलती आठ आने की मुट्ठी भर,

सूर्योदय होते ही सखियों संग जाती वो नदी लिए गागर,

लालिमा भोर की पाती थीं, बूंदें गागर से छलक छलककर,


सिर में गागर वो दोहराए, 

आँचल मस्ती में लहराए,

पैरों में उसके लिपटी धूल, 

मगर होठों से झड़ते फूल,

घूंघट में कभी शर्माए वो, 

कभी मन्द - मन्द मुस्काए वो, 

सूरज भी इस मोहिनी रूप पर किरणें तब बिखरा रहा था, 

मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 2 ॥


काकी के उन बागानों में रहता हम सब का सदा ध्यान,

बेचारा अमरूद का पेड़ हमारी हरकतों से था अंजान,

 उसकी अकड़ीली डालें भी कर रहीं चढ़ने में परेशान,

पर हार हमें मंजूर नहीं, अपनी भी एक अलग पहचान, 


फिर तोड़-तोड़ अमरूद रखे, 

अलबेले मेरे सारे सखे, 

अब भर गई मेरी जेब यार, 

तू देगा अपनी जेब उधार !

चिल्लाया उधर चौकीदार, 

हिलना मत कोई खबरदार, 

लाठी का रौब दिखा-दिखा वो उठक-बैठक लगवा रहा था, 

मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 3 ॥


उन ऊबड़ - खाबड़ गलियों में अक्सर बैलगाड़ियाँ चलती थीं, 

कभी टेड़ी मेढी लहराती साइकल भी कोई निकलती थी,

उस पर सवार वो भी लहराती खबरें सबकी पहुंचाती थी,

जो खाली हाथ तो आती थी पर खुश सबको कर जाती थी,

वो डाकिया की चिट्ठी थी, और ध्यान सबका लुभाती थी,


कोई करे अपनों को याद, 

भुला ना पाए घर का स्वाद,

अरमान किसी के मचलाए वो, 

रुला रुला कर हँसवाए वो,

फिर सामने कागज कलम रखा, 

खत का जवाब जल्दी से लिखा,

साइकिल में सवार फिर एक बार, डाकिया खत ले जा रहा था,

मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 4 ॥


बिजली कड़की बादल गरजे, बारिश की पहली फुहार आयी,

अन्नदाता के लिए भी अब, कर्मभूमि की पुकार आयी,

फिर रखा कांधे पर हल अपने, हलधर की जोडी संग आयी,

रोटी की पोटली साथ रख, किसान चला करने बुआई,


जैसे ही खेत निकट आया, 

मन उसका पल - पल हर्षाया,

भार्या धान ले आयी साथ, 

उसने भी बटाया अपना हाथ,

दोनों की मेहनत रंग लाई, 

जल्दी ही फसल भी लहराई,

लहराती फसल के बीज किसान भार्या संग 'कजरी' गा रहा था,

मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 5 ॥


आज अचानक लगा कि जैसे भूल गया हूं गाँव को,

जामुन की कच्ची डाली को और नीम की ठंडी छाँव को,

जीवन की इस भागदौड़ में, मिला नहीं ठहराव वो,

जब इत्मिनान से बैठ देखता, गाँव के बदलाव को,


मचल उठा पर आज मेरा मन, 

जाने क्यों इतनी हैं उलझन,

कैसे खुद को समझाऊँ मैं,

क्या वापस गाँव चला जाऊं मैं

अभी उठा ही था कि रात हो गई, 

तारों से फिर मुलाकात हो गई,

फिर से  "आकाश"  को देखा, खयालों से भरता जा रहा था,

फिर से यादों के सहारे, गाँव मुझमें समा रहा था,

आज फिर यादों के सहारे, गाँव मुझमें समा रहा था ॥ 6 ॥


- आकाश

टिप्पणियाँ

  1. अदभुत, अप्रतिम बहुत ही सुन्दर कविता है मित्र ।
    ऐसे ही लिखते रहो 🙏❤️

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    उत्तर
    1. बहुत ही आभार मित्र ! कृपया शेयर जरूर करना और विजिट करते रहना :)

      हटाएं

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