रेत की घड़ी (Ret Ki Ghadi)


रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना । 

सिमट कर बिखरना, बिखर कर सिमटना ।


मुड़कर जो देखा बीते हुए कल में,

खो गए उसी पल में जैसे मछली जल में । 

जैसे जल बादल में जैसे चांदनी थल में, 

कहीं खो न जाएँ खुशियाँ वक्त की हलचल में ।


कुछ हमने सुना था, कुछ खुद से बुना था, 

उनींदी सी आँखों में था एक सपना । 

रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 1 ||


थोड़ा सा पीछे गए तो पहुंचे बचपन में, 

कभी कंचे कभी पिट्टुक खेलते थे आँगन में । 

कल्पनाओं के रास्ते टहल आते थे गगन में, 

और करते बातें सितारों से मन ही मन में ।


मिलकर उस चाँद से, पूछनी थी बात ये, 

कौन सी अदा है यूँ छिप-छिपकर दिखना । 

रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 2 ||


यादों की राहों में ऐसे ही भटकते हैं, 

सच तो ये है कि उस पल को खोजते हैं । 

जब कहते थे हार कर गलतियों से सीखते हैं। 

मानलो तो हार ठानलो तो जीतते हैं।


जी रहे हर पल को, छू रहे बादल को, 

और पूरा हो रहा है बचपन का वो सपना । 

रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 

रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 3 || 


-आकाश 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आज का युवा (Aaj Ka Yuva)

सोन चिरैया भाग-2 (Son Chiraiya Part-2)