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विश्वास का दीपक (Viswas Ka Deepak)

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  Image Credit : Google search images ये पता नहीं आजकल, क्या होता जा रहा है धीरे धीरे जैसे, जीवन ही खोता जा रहा है जो कभी झुके ना थे, आज उठने से कतराते हैं जो सबसे फुर्तीले थे, वही आलस के हाथों हार जाते हैं कभी सोचा नहीं था मैंने, कि इतना बदल जाऊंगा करियर को संभालने में, ज़िंदगी जीना ही भूल जाऊंगा सब जानकर भी लगता है, जैसे कि कुछ भी पता नहीं  कल तक जो इतना भाते थे, उनमें भी मन लगता नहीं हैरान हूँ कि जिंदगी ये, कहाँ ले आई मुझे  अंधियारा सा है हर तरफ, हैं दीप भी जैसे बुझे कैसे जलाऊँ दीपकों को, प्रश्न ये अब भी वहीं है बाती भी है तेल भी है, बस इक चिंगारी नहीं है भोर में दिनकर की लालिमा में उसको ढूंढता हूँ सांझ तक दिनभर की कल्पना में उसको ढूंढता हूँ दोपहर के घाम में या रात्रि के विश्राम में स्वप्न के अभिराम में और तृष्णा से संग्राम में ढूँढ़ता हूँ हर तरफ, हिम्मत अभी हारी नहीं है  बाती भी है तेल भी है, बस वो चिंगारी नहीं है एक तो ये रास्ता भी, कितने कंटक से भरा है धुंध है मायूस करती, जैसे कोई कटघरा है विश्वास के इस दीप को, लेकिन जलाके ही रहूंगा जो भी हो, उम्मीद की चिंगारी मैं लाके ही रहूंगा 

सोन चिरैया भाग-2 (Son Chiraiya Part-2)

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  भारत की स्वाधीनता पर जो कुपित दृष्टि गड़ाते हैं, उनके लिए मन-मंदिर में कुछ भाव इस तरह आते हैं - देखोगे इसे जो बुरी नजर से, खाक में तुम मिल जाओगे, कहोगे फिर चेताया नहीं, सिर पीट-पीट पछताओगे, अस्त्र-शस्त्र भी पा लोगे, तुम साहस जुटा न पाओगे, दंभ अगर हो, कोशिश करलो, मुँह की फिर भी तुम खाओगे। जब-जब भारत के टुकड़े करने का विचार तुम लाओगे , सौगन्ध धरा की ! तब-तब तुम सोचने तक से कतराओगे ।  जो आए इस देवभूमि, मन चकित, पूछ सवाल रहे, कभी शरणागत को आश्रय, कभी शत्रु के बस कंकाल रहे ! देते हैं वचन ! जो याचक बन, आए स्वागत धूमधाम रहे, हर दिल में तिरंगा लहराए और लहु देश के नाम बहे ॥ 8 ॥ कश्मीर समस्या निपट गई, अब आतंकवाद मिटाना है, 'आजादी का अमृत महोत्सव', मिलकर हमें मनाना है , विकसित होने की दौड़ में भी, सबको कदम बढ़ाना है , गर पीछे कोई छूट गया, उसको भी साथ मिलाना है,  खेल, कला, विज्ञान, संस्कृति, और शिक्षा सबको दिलाना है, भेदभाव की जंजीरों को, तोड़ आगे बढ़ जाना है, 'एक दिवस' त्यौहार नही, "स्वाधीनता" तो वो 'खजाना' है, जिसके बल-बूते पर फिर से "सोन-चिरैया" बन

सोन चिरैया भाग-1 (Son Chiraiya Part-1)

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वर्षों की कठिन तपस्या से, पाये हैं ये 'पावन लम्हें', असमंजस में हूँ, गुप्त रखूँ या लिखकर व्यक्त करूँ इन्हें । कोई गजलें गा के कहे, कई शायर यहाँ बेनाम रहे । हर दिल में तिरंगा लहराए और लहु देश के नाम बहे ॥ क्या बिसात उनकी, जो देश को दूषित करने आए थे, एकता की इस नेक धरा में 'तोपखाना' वो लाए थे, पानीपत की युद्धभूमि में विजयी तो कहलाए थे, पर वीरों का साहस देख वो मन-ही-मन घबराए थे। पल-पल की इस बर्बरता से, ये शासक कई बदनाम रहे, हर दिल में तिरंगा लहराए और लहु देश के नाम बहे ॥1॥ यूरोपीय देशों से वो आए करने व्यापार थे, देह 'फिरंगी' और मन में लालच से भरमार थे, प्रतिद्वंदियों से लोहा लेने बना रहे हथियार थे, राजाओं में 'फूट डाल', खुद राज करने तैयार थे । लूट-लूट वो "सोन-चिरैया", ले जा इंग्लिश्तान रहे, हर दिल में तिरंगा लहराए और लहु देश के नाम बहे ॥ 2 ॥ दुर्विचार और कुनीतियों से, बना लिया अपना गुलाम, प्रतिदिन शोषण कर लगा दिया, समृद्धि पर पूरण विराम, मनमाने सूदों से नष्ट, कर दिए गृह-उद्योग तमाम, वेद पुराण की शिक्षा रोक, संस्कृति को भी कर दिया नीलाम । जन-जन ने

कल, आज और कल (Kal Aaj Aur Kal)

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कितनी ही कोशिश की लेकिन मैं उससे न बच पाया था हर वक्त आखों में झिलमिलाता जो, मेरा ही तो साया था जो कल तक मेरा अपना था उसने ही आज डराया था रह-रह कर मुझसे पूछ रहा क्यों वक्त तूने गवाया था । " क्यों नहीं किया वो सब जिसको ये दुनिया करती आई है क्यों तेरे मन में उसके लिए नफरत सी अब तक छाई है हाँ ! मानता हूँ उसको करके कुछ पीढ़ीयाँ तो पछताई है पर अनुभव मेरा कहता है, दुनिया की यही सच्चाई है । " ये बीता हुआ कल, सिर पर चढ़, आज हिसाब मांग रहा  जंजीर बना 'अफ़सोस' की, क्यों मुझे सूली पर टाँग रहा संदेह, ग्लानि और कुंठा के, क्यों आज रचा ये स्वांग रहा बीते कल का हारा तू, क्यों पूछ सवाल उटपटांग रहा । हाँ शायद ! मैंने ही अपना कर्त्तव्य ठीक से किया नहीं, जैसे जीवन को जीना था कल वैसे मैने जिया नहीं, जो सीख गलतियों ने दी थी उनको भी शायद लिया नहीं अपने आज मैं उलझा यूँ, कल का विश्लेषण किया नहीं । पर इसका अर्थ ये कतई नहीं, तू नींद- चैन खा जाएगा  हर बार भिड़ाकर भाव, मेरे तर्कों को काटता जाएगा बिना मर्जी मेरे जीवन का चालक भी बन जाएगा अपराध बोध की खाई में तू, मुझे भी खींच ले जाएगा । पर गाँठ बांध

हैरान हूँ तू मेरी है ! (Hairan Hun Tu Meri Hai)

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हैरान हूँ ऐ जिंदगी तेरे रंग देखकर, तू मेरी ही है या थोपा गया है तुझे मुझपर, जो सफल हुए, कहा "मैंने खुद बनाई है" जो चूक गए, कहने लगे  "लिखी लिखाई है" बड़े असमंजस में पड़ गया, बातों के ये ढंग देखकर हैरान हूँ ऐ जिंदगी तेरे रंग देखकर … एक वक्त था जब, बिना कारण जी भर के हंसते थे शायद बचपन था, ज़िम्मेदारियां नहीं थीं, कंधे छोटे थे अब तो खुद पर तरस आता है, ये चेहरा बदरंग देखकर हैरान हूँ ऐ जिंदगी तेरे रंग देखकर … तुझे पता है यहाँ इंसान को, गुण नहीं आंकड़ों से तौलते हैं "उनसे" थोड़ा कम हो गये, तो "गूंगे" भी उपहास में बोलते हैं हिम्मत ही टूट जाती है, अपनो से होती ये जंग देखकर हैरान हूँ ऐ जिंदगी तेरे रंग देखकर … तुझसे ख्वाहिशें तो बड़ी थीं, शायद आसमान के जितनी उम्मीद एक ही थी मगर, और ठोकरें ना जाने कितनी वो भी टूट ही गई आखिर, लहुलुहान अंग देखकर हैरान हूँ ऐ जिंदगी तेरे रंग देखकर … ऐसा नहीं मैंने दोबारा कोशिश नहीं की, हिम्मत नहीं जुटाई हर उस राह पर चला, जहाँ फिर थोड़ी सी उम्मीद नजर आयी सब कुछ भूल पीछे दौड़ा, तेरी कटी हुई पतंग देखकर हैरान हूँ ऐ जिंदगी तेरे र

यादों का एक सहारा (Yadon Ka Ek Sahara)

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  दूर कहीं आसमान में देखा, तारा एक टिमटिमा रहा था मैं आज यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था । वो खेत जिसकी मेढ़ों पर चलकर अकसर फिसलते थे, वो धूमिल गलियाँ जिनपर हम अनायास ही टहलते थे, वो शाम की सौंधी सुगंध जब मवेशी टोलियों में निकलते थे, 'टापर' की मधुर ध्वनियां सुन नन्हें बछड़ों संग हम भी उछलते थे । भले तन पसीने से चूर,  पर था मन आनंद से भरपूर, ऊँची थी उसकी कदकाठी,  चलता हाथों में लिए लाठी,  धोती पहना था मटमैली,  टाँगा गमछे की बना थैली, और पशुओं को हांकता मदमस्त चला आ रहा था, मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 1 ॥ संतरा वाली गोली को खाते चटकारे ले लेकर, वो भी इतनी अनमोल कि मिलती आठ आने की मुट्ठी भर, सूर्योदय होते ही सखियों संग जाती वो नदी लिए गागर, लालिमा भोर की पाती थीं, बूंदें गागर से छलक छलककर, सिर में गागर वो दोहराए,  आँचल मस्ती में लहराए, पैरों में उसके लिपटी धूल,  मगर होठों से झड़ते फूल, घूंघट में कभी शर्माए वो,  कभी मन्द - मन्द मुस्काए वो,  सूरज भी इस मोहिनी रूप पर किरणें तब बिखरा रहा था,  मैं फिर से यादों के सहारे, गाँव अपने जा रहा था ॥ 2 ॥ काकी के उन बागा

सपने और मंज़िल (Sapne Aur Manzil)

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    तुम  हो बहुत ही खास ये विश्वास करलो मेरा , क्या सूरज को भला कभी रोक पाया है अंधेरा ! कितनी ही बाधाएं, रोकती आयी हैं, रोकेंगी, रूढ़ीवादी समाज की हर नजरें तुम्हें टोकेंगी, पर तुम याद रखना, बढ़ते रहना तुम्हारा लक्ष्य है, गर खुद पर विश्वास हो, मंजिल तुम्हारे समक्ष है , याद करो वो वादा, जो तुमने खुद से किया था, वो खुली आँखों का सपना, जिसने जीवन का मकसद दिया था,  वो सपना जो आज भी देता है उम्मीद तुम्हें जीने की, जिसकी याद से बढ़ जाती है धड़कन तुम्हारे सीने की, वो सपना जिसे हम छुपाते हैं, बताने में कतराते हैं, हँसी उड़ेगी? हाँ ! शायद इसी बात से घबराते हैं, क्योंकि लोगों ने कहा- बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं, अरे पगले ! वो सिर्फ अपनी नाकामयाबी पर पछताते हैं, क्या फर्क पड़ेगा उनको जो खुद से ही हारते आए हैं , वो क्या बता पाएंगे, कितनी तुम में क्षमताएं हैं, फिर क्यों तुम थक गए, रुक गए, अभी तो ये सब शुरु हुआ है, ये पहला पड़ाव था संघर्ष का, जिसको तुमने छुआ है कब तक डरोगे गलतियों से, सीखना उनसे ही है, ज़िद करो, करते रहो, जीतना खुद से ही है जब जीत जाओगे खुद को, ज़िंदगी नए आयाम खोलेगी, तब तुम क्या बत

पेड़ एक परिणाम अनेक (Pedh Ek Parinam Anek)

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करते हुए नम्र निवेदन, लिख रहा हूँ मैं ये लेख  आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक !  मन विचलित हो रहा आज, है चहुँ ओर कुहराम मचा ।  वृष्टि की भी अनियमितता, है तापवृद्धि का क्या कहना । हरियाली दिखती नहीं कहीं, है छाया अंधाधुन्ध धुँआ ।  कर्णों तक न पहुँच सकी, वसुधा की यह करुण वेदना । कोलाहल में सोच न पाऊँ,  जाऊँ तो मैं कहाँ जाऊँ ।  विवशता की घेर में था,  कहूँ किससे अपनी ये व्यथा । अवचेतन में 'गूँज' उठी, विचरण - चिंतन करके देख ! आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ॥ 1 ॥ शोरगुल से तन - मन आहत, जा पहुँचा हूँ निकट 'बाग' में । स्वच्छन्द सी, डाल में बैठी, गा रही कोकिल मधुर राग में । नृत्य तथा गुंजार करते, लिपटे भँवरे हैं 'पुष्प पराग' में । आबोहवा है झूम रही, ना जाने किसके अनुराग में ! मन में प्रश्नों की है भरमार,  हो रहा कैसा ये चमत्कार ।  शीतल सी हवा, थे पुष्प झड़े,  गुलमोहर में अंगारे जड़े । पत्रों की ओट में छुप कर के, दिनकर कर रहा था 'अभिषेक' आज पेड़ लगाऊँ एक, जिसके हों परिणाम अनेक ॥ 2 ॥ कलरव का उल्लास लिए, विश्राम कर रहे राहगीर ।  मनमोहक खुशबू मन बहका

जिंदगी की एक किताब (Zindagi Ki Ek Kitab)

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क्यों न हम तुम मिलकर लिखें, जिंदगी की एक किताब, कुछ बातें सच्ची होंगी, कुछ होंगे महज़ ख़्वाब, सारी अड़चन साथ लिखें तो, कितने पन्ने लग जाएंगे ? क्या ख्वाहिश लिखने को उसमें, खाली पन्ने बच पाएंगे ? 'अड़चन को अवसर' लिख दें तो शायद बन जाए हिसाब ! कुछ बातें … हम भी तो अर्जुन-सम गुजरे, अंतर्द्वन्द्व से कितनी बार, फिर  'वासुदेव'  को क्यों न लिखें, समझाए जो गीता का सार, जब ढूंढा जिस रूप में खोजा, मिला मुझे वो लिए जवाब । कुछ बातें … कैसे शब्द बनेंगे वो पल, जब अवसाद बहुत हावी था ? नींद नहीं, न भूख, न बातें, खुद को समझे अपराधी था, उस झ्क उम्मीद को लिखो मगर, ढाए जिसने गम के सैलाब । कुछ बातें … विफल हुए उम्मीद भी टूटी, रिस्ते कई बेस्वाद हुए,  पर लिखना उन ठोकरों को, जिनके बल से फौलाद हुए, ज़िक्र उसका भी करना जिसने, तुमसे तुम्हें किया बेनकाब ! कुछ बातें … इक पन्ना उनको भी देना, जो टिफिन छीन कर खाते थे, "मैं हूँ ना यार" कह कर वो, निष्फिक्र तुम्हें कर जाते थे, उन यारों कि याद से भरा हुआ है, खुशियों का गुल्लक नायाब ! कुछ बातें … किस्मत में होगा, मिल जायेगा, यही तो सुनते आये हैं,

रेत की घड़ी (Ret Ki Ghadi)

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रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना ।  सिमट कर बिखरना, बिखर कर सिमटना । मुड़कर जो देखा बीते हुए कल में, खो गए उसी पल में जैसे मछली जल में ।  जैसे जल बादल में जैसे चांदनी थल में,  कहीं खो न जाएँ खुशियाँ वक्त की हलचल में । कुछ हमने सुना था, कुछ खुद से बुना था,  उनींदी सी आँखों में था एक सपना ।  रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 1 || थोड़ा सा पीछे गए तो पहुंचे बचपन में,  कभी कंचे कभी पिट्टुक खेलते थे आँगन में ।  कल्पनाओं के रास्ते टहल आते थे गगन में,  और करते बातें सितारों से मन ही मन में । मिलकर उस चाँद से, पूछनी थी बात ये,  कौन सी अदा है यूँ छिप-छिपकर दिखना ।  रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 2 || यादों की राहों में ऐसे ही भटकते हैं,  सच तो ये है कि उस पल को खोजते हैं ।  जब कहते थे हार कर गलतियों से सीखते हैं।  मानलो तो हार ठानलो तो जीतते हैं। जी रहे हर पल को, छू रहे बादल को,  और पूरा हो रहा है बचपन का वो सपना ।  रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना ||  रेत की घड़ी सा ये जीवन है अपना || 3 ||  -आकाश